साधना-पद्वति

 ''साधना का अर्थ है प्रयत्न करना, लगना। साधना का अर्थ सिद्धि भी है। आत्मानुसंधान के मार्ग में अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन करने की अनुभूति के पथ में हमारी जो कुछ भी आतिमक चेष्टाएँ होती है उन सबका नाम साधना है। साधक को सदाचार के मार्ग पर चलते हुये सबके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा से करते हुये साधना करनी है।"

परमसन्त श्री भवानी शंकर जी
(चच्चा जी महाराज, उरर्इ)

प्रात:कालीन साधना

                               

प्रात:काल दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर साधना के लिये बैठना चाहिये।                                

(प्रत्येक साधक को प्रतिदिन एक निश्चित समय पर साधना हेतु बैठना चाहिये। एक निश्चित समय पर पूजासाधना हेतु   बैठने पर उसी समय पर पूज्य गुरुदेव की शक्ति का संचार  साधक में स्वत: ही होने लगता है तथा साधना में विशेष लाभ प्राप्त होता है)
(A)      गुरुदेव की आरती ('गुरु-वाणी' पुस्तक में वर्णित)
(B)        प्रारम्भ चौपाइयों से करें
(चौपार्इयों का विस्तृत उल्लेख 'गुरू-वाणी' पुस्तक की साधना पद्धति में किया गया है)
चौपाइयों के बाद (विस्तृत प्रार्थना करें)
(1)          हे गुरुदेव, आप बड़े दयालु एवं कृपालु हैं इस समय हम आपकी याद के वास्ते बैठे हैं। इस वास्ते आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप इस दरम्यान मेरी रक्षा करना। ऐसा न हो हम संकल्प-विकल्प में ही फँसे रहे और आपकी याद न कर सके।
(2)          हे गुरुदेव, आप बड़े दयालु एवं कृपालु है। हमसे जाने अनजाने जो गलितयाँ हुयी हो, उसके लिये हमे क्षमा प्रदान करें। हमारे ऊपर नजर रखें, जिससे वह गलितयाँ हमसे दुबारा न हो, और हम सबके प्रति अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से करने में समर्थ हो।
(3)          हे गुरुदेव, हमारे माता-पिता ब्रम्ह्राण्ड के किसी भी लोक में हो उनके जीवन-काल में हमसे या उनसे जाने अनजाने जो गलितयाँ हुयी हो उसके लिये हम लोगों को क्षमा करें एवं उन लोगों की आत्मा को शांति प्रदान करें।
                (पूज्य गरुदेव कहते थे जिनके माता-पिता मौजूद है उनको भी इस तरह की प्रार्थना करने से जल्दी फायदा होगा) (स्मारिका के 'अमृत वचन पेज नं0-44 से)

(C)         हृदय चक्र पर (अभ्यास) ध्यान
(व्यवहारिक आध्यात्म में आध्यात्म मार्ग की विशद, यौगिक जटिलतायें नहीं हैं। जैसे कुण्डलिनी को जागृत करते हुए षटचक्र भेदन करते हुए विभिन्न कोशों को जागृत करते हुए साधनारत होकर आध्यातिमक कल्याण प्राप्त करना। जनसामान्य के लिए यह एक दुरूह  प्रक्रिया है। पूज्य गुरूदेव श्री चच्चा जी साहब ने इन साधनागत जटिलताओं का निवारण करते हुए इसे व्यवहारिक रूप में प्रस्तुत किया। व्यवहारिक आध्यात्म में मुख्य बल केवल हृदय चक्र पर है।) हृदय चक्र जागृत होने पर सभी चक्र स्वत: ही जागृत हो जाते है।

STEP-I:-

साधक को चाहिये कि अपने आराध्य देव/गुरुदेव का पूरे आत्म विश्वास एवं निष्ठा भाव से मानसिक ध्यान करें। (स्त्रियों को हृदय में अपने पति का ध्यान करना है। गुरुदेव/आराध्य देव का ध्यान सामने से होगा) मन में ऐसी धारणा करें कि गुरुदेव/आराध्य की दिव्य शक्तियाँ धीरे-धीरे मेरे अन्दर प्रवेश कर रही है और मेरे अन्दर तथा चारो ओर के वायुमण्डल में प्रकाश फैला हुआ है तथा संकल्प के परमाणु उत्तेजित हो रहे है। प्रकाश बहुत शीतल एवं मनोहर अनुभव हो रहा है। ऐसे सशक्त वातावरण में निवास करने से मेरी मनः स्थिति को अध्यात्म की ओर बढ़ने में सहायता मिल रही है।

STEP-II:-


जब यह भाव स्थायी रूप से उतरने लगे कि श्री गुरुदेव हृदय में विराजमान हो गये हैं और चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश फैला हुआ है और अंर्तमन में शक्ति का श्रोत खुलने लगा है तो समझना चाहिए कि गुरुदेव की कृपा मिलना आरम्भ हो गयी है।

STEP-III:-


अध्यात्म भाव प्रधान तत्व है और पूर्ण रूप से सन्तुष्ट होने पर स्वयं को गुरुदेव में पूर्ण रूप से समर्पित कर देना चाहिये। सर्मपण इस तरह का होना चाहिए कि गुरु और शिष्य का तादात्य हो जाये। अन्ततः श्रद्धायुक्त अभ्यास भाव प्रेम एवं लगन से करने पर पूर्णता की सिद्धि में सहायक होती है। धैर्य पूर्वक साधना करने से आगे का मार्ग स्वयं प्रशस्त हो जाता है।

STEP-IV:-


पूजा करते समय गुरुदेव की कृपा आर्शीवाद का अनुभव करते रहना चाहिये, जिसके फलस्वरूप मन एकाग्रता की ओर अग्रसर होने लगता है।

STEP-V:-


मन के जितने भी विकार है वे पूजा से उभड़ते हैं जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में अच्छी या बुरी बातें दिखायी पड़ने लगती है उसी प्रकार आत्म प्रकाश में यह सब गुण-दोष उमड़ते हैं, इससे साधक को घबड़ाना नही चाहिये। साधक को उनकी उपेक्षा करते हुये साधना में लीन रहना है।

STEP-VI:-


साधक को घबराकर साधना नहीं छोड़नी है। निश्चित समय पर साधना करते रहना चाहिये। यह सब मन की चंचलता है एवं स्वाभाविक प्रक्रिया है। अभ्यास से मन धीरे-धीरे स्थिर होने लगता है।

STEP-VII:-


जब मन स्थिर हो जाये तो गुरुदेव के ध्यान में रामायण की यह चैपायी तीन बार पढ़नी चाहिये ‘‘बन्दहु नाम राम रघुवर को, हेतु कृशानु भानु हिमकर को’’ (स्त्रियों को इस चैपायी के साथ ‘एकहि धर्म एक व्रत नेमा, काय वचन मन पति पद प्रेमा’ अर्थात दो चैपायी करनी होगी) यह गायत्री मन्त्र की भाँति प्रभावशाली है। उसके बाद ‘राम’/ओम/ जो भी शब्द गुरु द्वारा दिया गया है की एक माला (108) करनी चाहिये। या आसानी से जितना हो सके।

STEP-VIII:-


जाप करते समय मन से आन्तरिक जाप किया जाये। मुँह से तोते की तरह रटना नहीं है। जाप के समय हर प्रकार से ध्यान हृदय चक्र पर रहे ओर ‘राम’/‘शब्द’ की ठेस बराबर हृदय में लगती रहे। ‘शब्द’ का महत्व बताते हुये पापा जी महाराज कहते थे कि अभ्यास द्वारा अपने ईष्टदेव द्वारा दिये गये ‘शब्द’ की साधना करने में साधक के हृदय में दिव्य प्रकाश जागृत होता है। साधक कुछ भी करे उसमें हृदय चक्र में जाप निरन्तर चलता रहे। जाप के सिद्ध होने पर उसे अपने हृदय में प्रकाश पुंज के रूप में अपने गुरुदेव के दर्शन होने लगेंगे। इस प्रकार दिव्य दृष्टि मिलने पर सारा संसार प्रकाशमय एवं प्रेममय दिखाई देने लगता है।

(साधकों को हृदय चक्र पर करने वाले अभ्यास को 5 मिनट से आरम्भ करते हुए समयावधि बढ़ानी है)

(D) इसके बाद तीन मिनट तक शाक्ति पूर्वक बैठे।

(E) तत्पश्चात ‘चच्चा चालीसा’ एवं ‘राधा-दादी वन्दना’ पढ़ते हुये कुछ विशिष्ट चैपाइयों द्वारा समाप्त करें। (गुरु वाणी में इसका विस्तृत उल्लेख है।)

(F) पूज्य गुरुदेव द्वारा निर्देशित ‘दैनिक पाठ’ स्मारिका या व्यवहारिक आध्यात्म’ पुस्तक में दिये गये है। उनका नित्य पाठ करने से साधकों को लाभ होगा।

(G) अन्त में एक भजन भी करें या श्री राम जयराम जय जय राम 3 बार करें।

(H) भजन के पश्चात ‘‘सार्वभौम प्रार्थना’’ (गुरु-वाणी) करें।

सांयकालीन साधनाः

 प्रातःकाल एवं सांयकाल की पूजा का क्रम एक ही है।

 सांयकाल स्मारिका में दिये गये अमृतवचन का पाठ करें।

 सांयकालीन संध्या का समय 7:00 बजे निर्धारित है।

(विशेष परिस्थितियों में समय थोड़ा आगे पीछे किया जा सकता है) समय निर्धारण के पीछे भावना यह है कि जब एक ही मत के मानने वाले अलग-अलग स्थान पर होते हुये भी एक ही समय पर साधनारत होंगे तो उसका असर विशेष होगा।

आत्मनिरीक्षणः

आध्यात्मिक मार्ग में उन्नति हेतु आत्म निरीक्षण आवश्यक है। अतः हमें नियम-पूर्वक एकान्त में बैठकर कुछ क्षण आत्म-निरीक्षण के लिये देना चाहिए। हमको यह देखना है कि आज हमने क्या भोजन किया, उसका दैनिक जीवन में क्या प्रभाव पड़ा, किस प्रकार से विचार आये, पूजा में क्या हालत रही, दिन भर क्या गलतियाँ की और अपने कर्तव्य का दायित्व किस सीमा तक पालन किया, ऐसा करने में क्या त्रुटियाँ हुई। दिन भर की स्थिति की समीक्षा करनी है, फिर उसके लिये प्रायश्यिचत करना एवं ईश्वर से प्रार्थना करना कि हमसे जो त्रुटियाँ हुई हैं उनको क्षमा करें और मेरे ऊपर निगरानी रखें ताकि वह त्रुटियाँ दुबारा न हो।

यह क्रिया रात के सोते समय और दूसरे दिन प्रातः उठने पर करनी होगी। प्रातःकाल उठने पर इतनी शक्ति माँगे कि कल जो गलती हुयी हो वह आज न हो।

 अपने पूजनीय एवं गुरुदेव के साथ सम्मानजनक व्यवहार करें। अदब का विशेष ख्याल रखें।

 किसी से बेअदबी न हो।


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